ने आवश्यक दखल देते हुए गुरुवार को उत्तराखंड के शहर में 4000 से अधिक घरों को गिराने के अभियान पर तात्कालिक रोक लगा दी। कहा जा रहा है कि ये घर अतिक्रमित कर अवैध रूप से बनाए गए हैं। करीब 50,000 से भी ज्यादा लोगों को राहत देते हुए शीर्ष अदालत ने इस मामले में कई जरूरी सवाल भी उठाए। हैरत में डालने वाली बात यह रही कि कानून और उसके पालन से जुड़े उन बुनियादी पहलुओं की तरफ पहले किसी का ध्यान नहीं गया। यह भी नहीं देखा गया कि रेलवे के कथित मालिकाना हक वाली जमीन पर बने जिन घरों को अवैध बता कर गिरा देने की बात कही जा रही है, उनमें से कई आजादी से पहले के बने हैं। उन घरों से जुड़े सारे दस्तावेज इन लोगों के पास हैं। इसी अवैध बताई जा रही कॉलोनी में सरकारी स्कूल और कॉलेज भी चल रहे हैं। इस जमीन के कुछ हिस्से को राज्य सरकार अपना बता रही है। ऐसा कोई सीमांकन नहीं हुआ है कि रेलवे की जमीन कहां तक है और कहां से राज्य सरकार की जमीन शुरू होती है। इन सबके बावजूद इस क्षेत्र के लोगों पर तब मानो वज्रपात हो गया, जब की एक पीठ ने 20 दिसंबर को यह निर्देश जारी कर दिया कि सात दिन का नोटिस जारी कर इस इलाके को बलपूर्वक खाली कराया जाए और इन अवैध निर्माणों को गिरा दिया जाए। पीढ़ियों से यहां रह रहे लोग कहां जाएंगे, बेघर-बार होकर कैसे रहेंगे, इस पर कोई बात नहीं। इन लोगों के पुनर्वास की क्या व्यवस्था है, इस पर कोई चर्चा नहीं। सबसे बड़ी बात यह कि उत्तराखंड की निर्वाचित सरकार ने भी इस बारे में कोई चिंता जाहिर करना जरूरी नहीं समझा, जबकि इस अभियान से प्रभावित निवासी इसकी उम्मीद कर रहे थे। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार से लोग ऐसी आशा करते भी हैं। खैर, इन हालात में हताश-निराश और बदहवास पीड़ित कड़ाके की ठंड में सड़कों पर आ गए। महिलाएं, बच्चे, बूढे धरने पर बैठे रहे कि किसी तरह उनका घर बचे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में बिलकुल ठीक कहा कि बरसों से एक जगह रह रहे 50,000 लोगों को इस तरह सात दिन के नोटिस पर उजाड़ा नहीं जा सकता। इस मामले की अगली सुनवाई 7 फरवरी को है। राज्य सरकार और रेलवे से भी जवाब मांगा गया है। वहां मामले के सभी पहलुओं पर बारीकी से विचार होगा। लेकिन महत्वपूर्ण कसौटी सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए तय कर दी है कि मामले का कोई ‘व्यावहारिक हल’ निकालना होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का ऐसे अन्य मामलों में भी ध्यान रखा जाएगा।
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