रामाकांत चंदन, पटना: हालांकि आगामी लोकसभा चुनाव 2024 में समय है। पर बिहार राजनीतिक रूप से काफी जागृत हो चुका है। भाजपा छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन को नया स्वरूप देना चाह रही है। इतना भर ही नहीं उनके मुख्य रणनीतिकार का एक तरह से बिहार को अपना घर ही बना डाला। साथ ही संगठन को भी नया स्वरूप दे डाला। जनता दल यू के मुख्य रणनीतिकार व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी संगठन को नया स्वरूप दिया और विपक्षी एकता मुहिम के लिए देश के दौरे पर दो बार निकल चुके। मगर एक कांग्रेस है जो आगामी लोकसभा चुनाव के प्रति न चिंतित दिखती है और न ही गंभीर। अभी के हालात यह है कि प्रदेश कांग्रेस ऐसे सेनापति के साथ है जिसके पास सेना नहीं है। तो क्या कांग्रेस बिना सेना के लोकसभा चुनावी जंग में उतरेगी?
बिना सिपाही जंग जीतेगी कांग्रेस?
कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की मानें तो मदनमोहन झा ने 4 वर्षों तक प्रदेश अध्यक्ष रहे। वो भी सेना विहीन। अब कुछ माह पहले कांग्रेस आलाकमान ने अखिलेश सिंह को प्रदेश की बागडोर दी है। उन्होंने भी अभी तक अपनी सेना नहीं बनाई। यानी न प्रदेश उपाध्यक्ष, न मंत्री और ना ही महासचिव समेत संगठन के अन्य पदों पर किसी की नियुक्ति हुई। कांग्रेस के भीतर संगठन का ढांचा नहीं खड़ा हो रहा है। इसके जिम्मेवार भी कांग्रेस के शीर्ष नेता हैं। इनमे से कुछ ऐसे नेता हैं जो 75 वर्ष से उपर के हो चुके हैं। लेकिन संगठन के पद उनको भी चाहिए। उनकी इस मंशा से नए लोगों को जगह नहीं मिल पाती। इनमे से कुछ नेता ऐसे है जो वर्षो बरस संगठन में रहे फिर भी वे अपना रिप्लेसमेंट अपनी संतान से ही चाहते हैं। ऐसे में नए चेहरे का कांग्रेस के संगठन में आना संभव नहीं दिखता।अंदर बहुत झोल है!
हो यह रहा है कि केवल अपने अपने लोगों को संगठन में लाने के फेर में चार साल मदन मोहन झा ने बगैर उपाध्यक्ष, मंत्री और सचिव के सहारे पार्टी चलाई। अब नए बने अध्यक्ष अखिलेश सिंह को बने भी लगभग पांच माह हो गए लेकिन ये भी संगठन नही खड़ी कर सके। सच है कि कांग्रेस का अंतर्कलह सतह पर तो नहीं दिखता है। अंदर ही अंदर एक गुट दुसरे गुट को परास्त करने का जंग आपस में ही लड़ रहा है। इस जंग में कांग्रेस के भीतर पहले से ही कई कद्दावर नेता थे। उस पर राजद से आए अखिलेश सिंह को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने पर प्रदेश कांग्रेस में मतभेद का एक नया द्वार खोल दिया। वैसे अखिलेश सिंह कोई इसके पहले अध्यक्ष नहीं, जिन्हे विरोध का सामना करना पड़ा। ये नहीं बनते तो कोई और बनता लेकिन विरोध उन्हें भी झेलना पड़ता।विरोध के स्वर बुलंद
प्रदेश अध्यक्ष के साथ कांग्रेस के साथ हो गया है कि पूरी ताकत से अपने प्रदेश नेतृत्व के साथ खड़े नहीं हो पाते। अभी अखिलेश सिंह का राजनीतिक हाल भी कुछ ऐसा ही है। एक तो उनका राजद के साथ संबंध रहना। दूसरा कभी उनका ऐसा वीडियो जिसमे वे भाजपा नेता रूड़ी की सभा में भीड़ जुटाने की अपने लोगों से आग्रह करना भी पार्टी के भीतर अविश्वास पैदा कर गया। कांग्रेस के कुछ युवा नेता की बात छोड़ दें तो तमाम सक्रिय और पुराने नेता अखिलेश सिंह के साथ मुस्तैदी से खड़े नहीं हैं। लेकिन विद्रोह की राह पर भी नहीं ।नहीं पट रही है प्रभारी और प्रदेश अध्यक्ष में
राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा भी है कि कांग्रेस के अध्यक्ष अखिलेश सिंह और भक्तचरण दास के बीच भी नहीं पट रहा है। कभी मामला अखिलेश सिंह की सूची पर तो कभी भक्तचरण दास की सूची पर अटकता ही रहा है। केंद्रीय नेता के द्वारा समाधान खोजा जा रहा है। बहरहाल,कांग्रेस के पास वक्त है। कांग्रेस के शीर्ष नेता डैमेज कंट्रोल में लगे हैं। कांग्रेस यह जानती है आगामी लोकसभा चुनाव से पूर्व संगठन को खड़ा नहीं किया गया तो इसका नकारात्मक संदेश चुनाव में जायेगा। कुल मिलाकर कांग्रेस एक बार फिर पूर्व की तरह संघर्ष के दौर से गुजर रही है। बिहार प्रदेश कांग्रेस के अंदर नेताओं की स्थिति और उनका राजनीतिक व्यवहार तो कुछ ऐसा ही संदेश दे रहा है। सवाल सबसे बड़ा है कि आखिर लोकसभा और विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी संभल पाती है या नहीं?from https://ift.tt/MIA5cLz
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